किसी भी देश की बुनियाद शिक्षा है। यही वहां की उन्नति और विकास का मूलमंत्र है। इसी अवधारणा के दृष्टिगत आत्म-निर्भर भारत के लिए नई शिक्षा नीति बनाई गई है, जो नए शैक्षिक सत्र से लागू कर दी जाएगी। संपूर्ण विश्व में शिक्षा व्यवस्था हो अथवा अर्थव्यवस्था सभी को कोरोना के कहर ने चरमरा दिया है।

उत्तर प्रदेश के स्कूलों में फीस को लेकर इन दिनों विवाद चल रहा है। बच्चों के अभिभावकों का तर्क है कि लाकडाउन की अवधि में जब समस्त विद्यालय बंद रहे और पढ़ाई नहीं हुई तो फीस किस बात की? उनका कहना है कि स्कूल मनमानी फीस मांग रहे हैं, जैसे एडमिशन फीस, ट्रांसपोर्ट फीस इत्यादि, जिसका कोई मतलब नहीं है।

नियामानुसार बच्चा जब वर्तमान कक्षा में प्रमोट होकर अगली कक्षा में जाता है तो उसका नाम स्वत: ही अगली कक्षा में लिख लिया जाता है। उसका कोई नया एडमिशन नहीं होता है। ऐसे में हर साल एडमिशन शुल्क की कोई प्रासंगिकता नहीं है। स्कूल बंद होने पर ट्रांसपोर्ट फीस का आखिर क्या अभिप्राय है?

सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि शिक्षा नियमावली के अनुसार स्कूल को 12 महीने का शुल्क देय होता है और यह शुल्क अभिभावकों को जमा करना होगा। हां, त्रैमासिक फीस एक साथ लेने के बजाय स्कूल प्रबंधक एक-एक माह की फीस ले सकते हैं, ताकि अभिभावकगण सुविधानुसार शुल्क जमा कर सकें। साथ ही उसी अवधि का ट्रांसपोर्ट अथवा कोई अन्य अवैध शुल्क अभिभावकों से नहीं लें। जो रियायत गरीब बच्चों को दी जा सकती है, वह ऐसे कठिन समय में अपेक्षित है।

सरकार ने यह भी कहा है कि इस आपात काल और संकट की घड़ी में किसी भी कर्मचारी की सेवाएं समाप्त न की जाएं और उन्हें पूरा वेतन दिया जाए। अधिकांश सेवायोजकों ने सरकार के इस मानवीय कदम को स्वीकार करते हुए माना भी है।

कोई भी आपातकाल हमेशा नहीं रहता। आता है और चला जाता है। इस कोरोना काल में बहुत से विद्यालयों ने अपने कर्मचारियों और शिक्षकों को यह कहकर नौकरी से निकाल दिया कि फीस के अभाव में हम इनको भुगतान कहां से करें। कुछ उन्हें आधा वेतन भुगतान कर रहे हैं और शिक्षक व अन्य कर्मचारी नौकरी खोने तथा प्रबंधकों की नाराजगी के डर से उसे स्वीकार भी रहे है। यह उनका खुलेआम उत्पीड़न हो रहा है।

सरकारी नियमों के मुताबिक, विद्यालय खोलने के लिए कुछ अनिवार्य शर्तें होती हैं। इनके अंतर्गत रिजर्व फंड और अक्षय निधि के रूप में एक मुश्त धन तथा प्रापर्टी की व्यवस्था करनी होती है और सरकारी मानक पूरे करने पड़ते हैं। यह धन प्रबंधकों के पास बढ़ता रहता है। इसका सदुपयोग कोरोना जैसे संकट काल के लिए ही होता है। इसका दुरुपयोग दंडनीय है। प्रबंधक चाहें तो शिक्षा अधिकारी से पूर्व अनुमोदन लेकर इस धन से शिक्षकों और कर्मचारियों को पूरा वेतन दे सकते हैं। इसके अतिरिक्त पूर्व में छात्रों से वसूली फीस भंडार में मानवीय दृष्टिकोण के अंतर्गत कुछ धन इसके लिए निकाला जा सकता है। बात मन की है। वैसे शिक्षकों को पूरा वेतन अदा करने को स्कूल प्रबंधक प्रतिबद्ध हैं।

शिक्षा नियमावली के अनुसार किसी भी शिक्षक को स्पष्ट रिक्ति में एक वर्ष के परिवीक्षा काल पर नियुक्त करने का प्राविधान है और एक वर्ष के बाद यदि शिक्षक का कार्य और आचरण संतोषजनक है तो उसे स्थाई कर दिया जाता है। जबकि यह प्राइवेट स्कूल इन नियमों का पालन नहीं करते हैं और सालों-साल शिक्षकों को अस्थाई ही रखते हैं और अस्थाई शिक्षक के रूप में जब चाहें उनकी सेवाएं समाप्त कर देते हैं। यह सरासर अन्याय और शोषण है। इसको न प्रबंधक देख रहे हैं और न ही सरकारी अधिकारी। शिक्षक बेवजह पिस रहा है। बहरहाल, किसी भी सफलता के लिए सकारात्मक और स्वस्थ्य वातावरण की आवश्यकता है। जब सिर पर हर समय तलवार लटकी रहे तो सफलता के बारे में भी सोचना बेमानी है।


-डॉ. आरबी मिश्र:
पूर्व प्रधानाचार्य- बरेली इंटर कॉलेज, बरेली

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