कविता
नहीं है, यह।
एक बीमार और बूढ़े
आदमी की
खब्त खोपड़ी
की
उबाऊ और पकाऊ
खुरापात भी नहीं….
फिर?????
है, प्राकट्य है
मेरे और तुम्हारे
तुम्हारे और मेरे
बीच के
स्नेहिल सम्बंध का
तारल्य का।
जो है
अत्यादि।
पुरातन।
जब..
छिटकी थी, अरुणाई
सभ्यता की प्राची की
मुढ़ेर पर बैठ
बाँग दी
सविता ने।
गूँजे थे, ऋषिगान
मधुर-ऋचाओं के स्वर।
भूल गये तुम???
जब हम तुम
साथ साथ पढ़ने की,
आगे बढ़ने की
साथ साथ रहकर
खाने की,
पीने की,
साथ साथ मेहनत कर
तेजस्वी और ओजस्वी
बनने की
और
आपस में
राग -द्वेष से
मुक्त रहने की
प्रार्थना किया करते थे।
जब तुम
पास आकर
मेरे बैठ जाते थे
श्रद्धा से,
विनय से,
प्रेम से,
तो गद गद हो
तुम्हारे प्याले में
उढ़ेल देता था
स्वयं को
और
रीता हो जाता था।
तुम्हारी आंखों में
कौंधता है
मेरा अपना
फ्लैशबैक
मेरी अपनी ही शरारतें
तुमको तो
मैं
आर पार देख सकता हूँ
क्योंकि
मैं भी तो
तुममे से एक हूँ।
लेकिन हाँ
जानने हो
जब तुममे से कोई
बंधा लाता है
मेरे लिये
अपने टिफिन बाक्स में
दो गोभी के पराठे,
या
रेडियो बीजिंग की
हिन्दी उद्घोषिका सी
कोई चिड़िया
‘नो सर’
बस से
फुदक जाती है
या
कोई सफेद तितली
कान के पास
हौले-हौले
सरसराती है,
सर! पैदल मत जाना
बस न मिले
लौट आना,
खाना यहाँ खाना
सो
किशोर के जाना,
वगैरह…..
तो मैं
मुग्ध सा,
ठगा सा
रह जाता हूँ।
लगता है
घन्टियाँ बज गईं हों
दूर मन्दिर में कहीं
या
कबूतर सत्य के श्वेत
पंख फड़फड़ाकर
उढ़ गये हों
सब जगह
सभी दिशाओं में।
यह सत्य,
यह आलोक ही तो
मेरी ऊर्जा का
स्रोत है
अक्षय स्त्रोत।
तुम!!!
मुझे देखो
और
अनुमानो
अपनी संभावनायें
और
सोचो,
कल तुम
कितना बडा वृत्त खीचोगे?
कितनी ‘नई त्रिज्याये’
कल
उगा पाओगे???
देखो, मुझ से बड़ा वृत्त
जरूर खींचना,
कहीं केन्द्र में ही
सिमट न आना
और
‘ज्योति के कलश’
जो तुमको
मिले हैं
उन्हें
एहतिहात से रखना
और
अगली संभावनाओं
को
सौंप जाना
कि
सत्य से असत् की,
तम से आलोक की,
मृत्यु से अमरत्व की
हमारी यह
शाश्वत यात्रा
कभी अवरुद्ध न हो।
शिक्षक दिवस के लिये (शिक्षक दिवस पर रचित शिक्षक और शिष्य के गौरवमय अन्त : सम्बन्धों की गरिमा को समर्पित एक रचना)
प्रस्तुति-
-शरद कान्त शर्मा
प्रधानाचार्य,
विष्णु इंटर कालेज, बरेली।